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लोकनायक कर्पुरी ठाकुर

लोकनायक कर्पुरी ठाकुर जी की जयंती 24 जनवरी को मनाया जाता है इस बार यह जयंती इसीलिए ख़ास हो जाता है क्योंकि इस वर्ष उनकी सौवीं जयंती मनाई गयी और साथ में इसी वर्ष उन्हें भारत सरकार ने मरणोपरांत उन्हें भारत रत्न देने की घोषणा की है। कर्पूरी ठाकुर को लोकनायक इसीलिए कहा जाता है क्योंकि उनके फैसलों से सिर्फ बिहार नहीं दिल्ली भी सोच-विचार करने को मजबूर हो गयी थी। कर्पूरी ठाकुर जैसे लोग राजनेता नहीं प्रणेता की श्रेणी में आते है जिन्होंने सिर्फ समाज के हासिये पर जी रहे जातिगत लोगों को ऊपर उठाने की कोशिश नहीं कि वरन उन्होंने उन सभी वर्गों को ऊपर उठाने का प्रयास किया जो हासिये पर थे जैसे महिलायें और गरीब स्वर्ण।

१९६७ में बिहार के शिक्षा मंत्री के रूप में उन्होंने मैट्रिक से अंग्रेजी को अनिवार्य विषय से हटा दिया ताकि जो लोग पिछड़ जा रहे थे अंग्रेजी अनिवार्य विषय के रूप में उन्हें सहायता मिल सके इसका व्यापक विरोध भी हुआ लेकिन वे अपने फैसले पर डटे रहे। उनकी कोशिशों के चलते ही मिशनरी स्कूलों ने हिंदी में पढ़ाना शुरू किया। यह आरोप लगाया गया है कि राज्य में अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा के निम्न मानकों के कारण बिहारी छात्रों को नुकसान उठाना पड़ा। कर्पूरी ठाकुर बिहार की परंपरागत व्यवस्था में करोड़ों वंचितों की आवाज़ बने रहे।

१९७० में १६३ दिनों के कार्यकाल में कर्पूरी ठाकुर ने आठवीं तक की शिक्षा मुफ़्त की। १९७७ में दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद मुंगेरीलाल कमिशन लागू करके राज्य की नौकरियों आरक्षण लागू करने के लिए हमेशा याद किया जाता है। जब १९७७ में वे दोबारा मुख्यमंत्री बने तो एस-एसटी के अलावा ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने वाला बिहार देश का पहला राज्य बना था जिसमे ११ नवंबर १९७८ को उन्होंने महिलाओं के लिए तीन, ग़रीब सवर्णों के लिए तीन और पिछडों के लिए ८ फीसदी और अन्य पिछड़े वर्ग के लिए १२ फीसदी यानी कुल २६ फीसदी आरक्षण की घोषणा की थी।

जब नेता और घोटाले एक दूसरे के पूरक के रूप में जाने जाते हो उस समय भी कर्पूरी जैसे नेता भी हुए, विश्वास ही नहीं होता। उनकी ईमानदारी के कई किस्से आज भी बिहार में आपको सुनने को मिलते हैं। उनसे जुड़े कुछ लोग बताते हैं कि कर्पूरी ठाकुर जब राज्य के मुख्यमंत्री थे तो उनके रिश्ते में उनके बहनोई उनके पास नौकरी के लिए गए और कहीं सिफारिश से नौकरी लगवाने के लिए कहा। उनकी बात सुनकर कर्पूरी ठाकुर गंभीर हो गए, उसके बाद अपनी जेब से पचास रुपये निकालकर उन्हें दिए और कहा, “जाइए, उस्तरा आदि खरीद लीजिए और अपना पुश्तैनी धंधा आरंभ कीजिए।”

उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने संस्मरण में लिखा, “कर्पूरी ठाकुर की आर्थिक तंगी को देखते हुए देवीलाल ने पटना में अपने एक हरियाणवी मित्र से कहा था – कर्पूरीजी कभी आपसे पांच-दस हज़ार रुपये मांगें तो आप उन्हें दे देना, वह मेरे ऊपर आपका कर्ज रहेगा। बाद में देवीलाल ने अपने मित्र से कई बार पूछा भी कि क्या कर्पूरीजी ने कुछ मांगा, लेकिन हर बार मित्र का जवाब होता – नहीं।” तो ऐसा उनका मापदंड था राजनीति में रहकर भी ईमानदारी से लोगों के लिए काम किया जा सकता है। राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था। ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए।

इस आरक्षण को लागू करने के चलते वे हमेशा के लिए एक ख़ास वर्ग के दुश्मन बन गए, लेकिन कर्पूरी ठाकुर समाज के दबे पिछड़ों के हितों के लिए काम करते रहे। वो देश के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने अपने राज्य में दसवीं तक मुफ्त पढ़ाई की घोषणा की थी। उन्होंने राज्य में उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा का दर्जा देने का काम किया जिसके खिलाफ भी एक वर्ग इतना परेशान हुआ की उन्हें पाकिस्तान का हिमायती तक कह डाला। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया था। इतना ही नहीं उन्होंने राज्य सरकार के कर्मचारियों के समान वेतन आयोग को राज्य में भी लागू करने का काम सबसे पहले किया था।

युवाओं को रोजगार देने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता इतनी थी कि एक कैंप आयोजित कर ९००० से ज़्यादा इंजीनियरों और डॉक्टरों को एक साथ नौकरी दे दी थी। इतने बड़े पैमाने पर एक साथ राज्य में इसके बाद आज तक इंजीनियर और डॉक्टर बहाल नहीं हुए। उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए प्रदेश में पूर्ण शराबबंदी लागू कर दी थी।

“कर कर्पूरी कर पूरा, छोड़ गद्दी उठा उस्‍तरा” ऐसे नारे जब उनके उपरोक्त कार्यो के बाद लगने लगे तो समझिए कि चोट कहाँ लगी थी। आज की नौजवान पीढ़ी इन बातों को समझने में नाकाम है। यह एक नारा नही पूरे समुदाय को कहा जा रहा है कि आप यही कर सकते है। यह एक व्यंग्य है जो पूरे समुदाय के लिए है। इसी से संबंधित एक और बात है कि जब वे मैट्रिक फर्स्ट डिवीज़न से पास हुए थे तो उनके पिताजी गाँव के जमींदार के पास ले गए और जमींदार से कहा मेरा बेटा मैट्रिक में फर्स्ट डिवीज़न से पास हुआ है तो उस जमींदार ने कहा अच्छा फर्स्ट डिवीज़न से पास हुआ है फिर अपना पैर आगे कर दिया और कहा कि चलो मेरा पैर दबाओ। ऐसा ही एक और वाक़या प्रचलित है जब वे मुख्यमंत्री थे तो उनके पिताजी गाँव के जमींदार के बुलाने पर तबियत खराब होने के वजह से नही जा सके तो लठैत को भेज दिया था लाने को, फिर जिला प्रशासन को पता चला तो बाद में मुख्यमंत्री रहते इन्होंने बात वापस ले लिया क्यों, क्योंकि उन्हें पता था कि उनके पिताजी जैसे सैंकड़ो लोग आज भी इसी तरह प्रताड़ित होते है कितनो को बचाएंगे। इसीलिए उन्होंने कहा था कि “आर्थिक आजादी से कुछ नही होता जब तक समाज में सामाजिक समानता नही आएगा”। तब तक समाज में दबे कुचलों पर अत्याचार होता रहेगा।

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Bhim Rao Ambdkar – भीम राव अंबेडकर

भारत रत्न भीमराव रामजी आंबेडकर (१४ अप्रैल, १८९१ – ६ दिसंबर, १९५६) बाबासाहब के नाम से लोकप्रिय, भारतीय विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाजसुधारक के नाम से मशहूर बाबासाहेब की जयंती की हार्दिक बधाई!

डॉ अम्बेडकरआशा करते है बाबा साहेब द्वारा कृत संविधान हम सबको एक निश्चित और सामान अधिकार दिलाने में अभी तक कामयाब रहा होगा। मैं यहाँ उन बातो को बताना नहीं चाहता हूँ की किनकी वजह से यह नहीं मिला और किनकी वजह से यह मिला। लेकिन संविधान ने हमे बहुत कुछ ऐसा दिया है जिनसे हम अपनी ज़िन्दगी कैसे बेहतर कर सके, हम अपने अधिकारो की रक्षा कैसे करे, हमारे कर्तव्य क्या क्या है इत्यादि जो बाबा साहेब ने 70 साल पहले सोचा आज भी वह उतना ही अक्षरश सत्य है जितना 40 साल या 70 साल पहले। तो आज हमे इस बात को जानने में ज्यादा विश्वास दिखाना चाहिए की एक व्यक्ति की वजह से एक आम आदमी को इतना अच्छा संविधान मिला है, यह उनकी दूरदर्शिता का कमाल है।

आपको ध्यान रखना है की कौन क्षद्म रूप से आपको बरगलाने की कोशिश में लगा हुआ है ऐसे लोगो को बेनकाब करने की जरुरत है। क्योंकि कोई भी क्षद्म रूप किसी भी समाज के लिए कही सही नहीं होता है।

बाबा साहेब के बारे में जो आज़ादी से लेकर आजतक चित्र प्रस्तुत किया गया उसमे सिर्फ एक संविधान निर्माता के रूप में प्रस्तुत किया गया, लेकिन अगर कोई उनके प्रोफाइल को चेक करेगा तो पता चलेगा जिस व्यक्ति को राष्ट्र निर्माता के रूप में पदस्थापित करना था वह एक संविधान निर्माता के रूप में या दलित राजनीतिज्ञ के रूप में रह गए।

पंडित जी ने जब अंतरिम सरकार बनाने के लिए 32 लोगो का चयन किया था तो उसमे अम्बेडकर साहेब नहीं थे लेकिन जैसे ही उस लिस्ट को लेकर गांधीजी के पास पहुंचे तो गांधीजी ने पूछा की अम्बेडकर का नाम क्यों नहीं है तो पंडित जी और पटेल जी बगले झाँकने लगे तो गांधीजी ने एक बात कही “नेहरु एक बात बताओ की अम्बेडकर से बढ़कर कोई आज की तारीख में कानून को जानता हो, तो बताओ”।

उन्होंने दलित बौद्ध आंदोलन को प्रेरित किया और दलितों के खिलाफ सामाजिक भेद भाव के विरुद्ध अभियान चलाया। श्रमिकों और महिलाओं के अधिकारों का समर्थन किया। वे स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री एवं भारतीय संविधान के प्रमुख वास्तुकार थे। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने विधि, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान के शोध कार्य में ख्याति प्राप्त की। जीवन के प्रारम्भिक करियर में वह अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे एवम वकालत की। बाद का जीवन राजनीतिक गतिविधियों में बीता। 1990 में, उन्हें भारत रत्न, भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से मरणोपरांत सम्मानित किया गया था।

शिक्षित बनो ! संगठित रहो! और संघर्ष करो!। यह सिर्फ एक नारा नहीं है अगर गौर करे तो यह एक ऐसी लाइन है जिसमे उपेक्षित समाज के जिंदगी को लिखा गया है लेकिन यहाँ ध्यान रखने वाली बात यह है की यह लाइन कही से से आगे पीछे ना होने पाए यह जैसे है वैसे ही अपनी जिंदगी में सार्थक करने का प्रयास करना चाहिए कहने का मतलब है की अगर पहली लाइन शिक्षित बनो लिखा है तो पहले शिक्षित बनिए दूसरी लाइन संगठित रहो है तो पहले आपको शिक्षित होना है फिर संगठित होना अगर शिक्षित होंगे तभी बिना किसी स्वार्थ के संगठित रह पायेंगे अगर शिक्षित ही नहीं बनेंगे तो संगठित होने का मतलब नहीं समझ पायेंगे। आखिर में तीसरी लाइन संघर्ष करो लिखा है तो पहले शिक्षित बनिए फिर संगठित रहिये फिर आप संघर्ष कर पाएंगे क्योंकी अगर आप शिक्षित नहीं होंगे तो संगठित नहीं हो पाएंगे और अगर बिना शिक्षित हुए संगठित होकर संघर्ष करेंगे तो आपको संघर्ष करने के बाद करना क्या है उसका मतलब नहीं समझ आएगा। तो लाइन में कही भी कोई बदलाव नहीं होना चाहिए अगर आप इसको उल्टा और अगर स्थान बदलने की कोशिश करेंगे तो भी उपेक्षित समाज का उत्थान संभव नहीं है जो लाइन है जैसे है वैसे ही अपने जीवन में ढालने का प्रयास करे तभी अगर आप उपेक्षित है या उस समाज से आता है तभी आप अपना या अपने समाज का भला कर पाएंगे।

शिक्षा ही एक मात्र उपाय है उत्थान का, उसके महत्त्व को समझिये और सबको समझाइए।

अंत में उनका एक वाक्य है जो सभी को पढ़ना चाहिए “मंदिर जाने से आपका कल्याण होगा ही, यह नही कहा जा सकता। लेकिन राजनीतिक अधिकारों का उपयोग जीवन में सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के लिए करना चाहिए।” – डॉ अम्बेडकर, 28 सितंबर 1932 वर्ली, मुंबई

#भीमरावअम्बेडकर #BhimraoAmbedkar #AmbedkarJayanti #धानुकसमाज #DhanukSamaj #धानुक #Dhanuk

धन्यवाद
शशि धर कुमार

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Fanishwar Nath Renu -फणीश्वरनाथ रेणु

“आओ ! ओ तूफ़ान ! जब तक मुझे जड़ से नहीं उखाड़ फेंकोगे– मैं तुम्हारा मुकाबला करता रहूंगा।” ~ फणीश्वरनाथ रेणु

जीवनफणीश्वरनाथ रेणु
फणीश्वर नाथ ‘ रेणु ‘ का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया जिले में फॉरबिसगंज के पास औराही हिंगना गाँव में हुआ था जो अभी अररिया जिले में परता है। उस समय यह पूर्णिया जिले में था। उनकी शिक्षा भारत और नेपाल में हुई। प्रारंभिक शिक्षा फारबिसगंज तथा अररिया में पूरी करने के बाद रेणु ने मैट्रिक नेपाल के विराटनगर के विराटनगर आदर्श विद्यालय से कोईराला परिवार में रहकर की। इन्होने इन्टरमीडिएट काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1942 में की जिसके बाद वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। बाद में 1950 में उन्होने नेपाली क्रांतिकारी आन्दोलन में भी हिस्सा लिये जिसके बाद नेपाल में जनतंत्र की स्थापना हुई। पटना विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के साथ छात्र संघर्ष समिति में सक्रिय रूप से भाग लिया और जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति में अहम भूमिका निभाई। १९५२-५३ के समय वे भीषण रूप से रोगग्रस्त रहे थे जिसके बाद लेखन की ओर उनका झुकाव हुआ। उनके इस काल की झलक उनकी कहानी तबे एकला चलो रे में मिलती है। उन्होने हिन्दी में आंचलिक कथा की नींव रखी। सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय, एक समकालीन कवि, उनके परम मित्र थे। इनकी कई रचनाओं में कटिहार के रेलवे स्टेशन का उल्लेख मिलता है।

लेखनी
इनकी लेखन-शैली रुचिकर और वृहदात्मक थी जिसमें पात्र के प्रत्येक सोच का विवरण लुभावने तरीके से किया जाता था। पात्रों का चरित्र-निर्माण काफी तेजी से होता था। इनकी लगभग हर कहानी में पात्रों की सोच घटनाओं से प्रधान होती थी। एक आदिम रात्रि की महक  इसका एक बेहतरीन उदाहरण है। जय गंगा मैया या कोशी डायन जैसे रेपोर्तार्ज को आप पढेंगे तो ऐसा लगता ही नहीं की दशको पहले इसको लिखा गया हो

रेणु की कहानियों और उपन्यासों में उन्होंने आंचलिक जीवन के हर धुन, हर गंध, हर लय, हर ताल, हर सुर, हर सुंदरता और हर कुरूपता को शब्दों में बांधने की सफल कोशिश की है। उनकी भाषा-शैली में एक जादुई सा असर है जो पाठकों को अपने साथ सिर्फ बांध कर नहीं रखता बल्कि अपने कहानी की हिसाब से उसे अपने साथ बहा ले जाता है। रेणु एक अद्भुत कहानीकार थे और उनकी रचनाएँ पढते हुए लगता है मानों कोई कहानी सुना रहा हो या सामने से परदे पर मूवी चल रही हो। गाँव के जीवन के लोकगीतों का उन्होंने अपने कथा साहित्य में बड़ा ही सर्जनात्मक प्रयोग किया है। जिसकी झलक आपको मैला आँचल से लेकर आदिम रात्रि की महक तक में दिख जायेगी

इनका लेखन प्रेमचंद की सामाजिक यथार्थवादी परंपरा को आगे बढाता है और इन्हें आजादी के बाद का प्रेमचंद की संज्ञा भी दी जाती है। अपनी कृतियों में उन्होंने आंचलिक शब्दों जिस तरह प्रयोग किया है वह ऐसा लगता है जैसे आज पढ़ते वक़्त उनकी कही हुई शब्द सुनाई पड़ती हो।

साहित्यिक कृतियाँ
रेणु जी को जितनी ख्याति हिंदी साहित्य में अपने उपन्यास मैला आँचल से मिली, उसकी मिसाल मिलना दुर्लभ है। इस उपन्यास के प्रकाशन ने उन्हें रातो-रात हिंदी के एक बड़े कथाकार के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। कुछ आलोचकों ने इसे गोदान के बाद इसे हिंदी का दूसरा सर्वश्रेष्ठ उपन्यास घोषित दिया।
इनके कालजयी रचनाओ में से कुछ नाम यहाँ उधृत करना आवश्यक है:
मैला आंचल
परती परिकथा
जूलूस
दीर्घतपा
कितने चौराहे
पलटू बाबू रोड
मारे गये गुलफाम
लाल पान की बेगम
पंचलाइट
तबे एकला चलो रे
ठेस

संवदिया
एक आदिम रात्रि की महक
ठुमरी
अग्निखोर
अच्छे आदमी

जै गंगा मैया
कोशी डायन
ऋणजल-धनजल
नेपाली क्रांतिकथा
वनतुलसी की गंध
श्रुत अश्रुत पूर्वे

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