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Society Upliftment Process – समाज कैसे आगे बढ़े

समाज कैसे आगे बढ़ेमैं कुछ सालों से धानुक समाज के लोगो या उससे जुड़े संगठनों से मिल रहा हूँ लेकिन दुर्भाग्य कहिए या भेड़चाल हमें कहीं भी समाज को ऊपर उठाने के लिए किसी भी तरीके का कोई ब्लूप्रिंट नजर नही आ रहा है। मैंने अपनी तरफ से कई सालों से मेरे मन में क्या है, समाज के अंदर क्या क्या समस्याएं है, कैसे उन समस्याओं तक पहुँचा जाय और मैंने उसको चाहे सोशल मीडिया हो या सामाजिक मीटिंगों में सबके सामने खुलकर रखा भी और उसपर कई मीटिंगों में उसपर खुलकर चर्चा भी की तथा कैसे उससे निजात पाने के तरीकों को जमीन पर उतारने की पहल हो, लोगों को उसके बारे में कैसे जागरूक करें, कैसे युवाओं और महिलाओं को इस मुहीम में जोड़ा जाए, काफी कुछ बात किया है आज भी करता रहता हूँ। इसके बारे में अपनी तरफ से कई बार छोटा छोटा ब्लूप्रिंट भी रखा जिसको कई लोगों ने अपनी तरफ से उसको बनाकर लोगों के सामने पेश कर दिया। खैर उससे कोई फ़र्क नही पड़ता है आपने किसी का किया हुआ काम अपने नाम कर लिया बिना यह जाने की यह बौद्धिक संपदा के अंतर्गत किसी की निजी संपत्ति के अंतर्गत आता है फ़र्क इस बात से पड़ता है कि आपने या आपकी संस्था ने उसपर आगे कोई चर्चा नही किया और ना ही उसके बारे में लोगों से उनकी राय माँगी। जो एक कड़ी बननी चाहिए थी वह टूट गयी। और आज भी भी टूटी हुई ही है।

यहीं हम मात खा जाते है हम एक दूसरे को देखते हुए चल रहे है आजकल हमारे युवा भी सामाजिक तरीकों से सोचने के बजाय हर मुद्दे को राजनीति की तरह सोचना शुरू कर देते है की इससे किसको फायदा होगा किसको नुकसान होगा। यह किसी भी तरीके से व्यक्तिगत या राजनैतिक नफे नुकसान से ऊपर उठकर सोचने की जरूरत है। आप किस राजनैतिक पार्टी को समर्थन करते है यह आपका संवैधानिक और व्यक्तिगत फैसला है और मैं हमेशा इसका सम्मान करता हूँ। मेरा मानना है कि आप तबतक इसका सार्वजनिक प्रचार प्रसार ना करे जबतक आप उस पार्टी के प्रार्थमिक सदस्य ना हो, जैसे ही आप यह करते है आप सामाजिक तौर पर निष्पक्ष नही हो सकते है। हम हमेशा यह कहते है पुराने ज़माने के लोगो ने समाज के साथ न्याय नही किया तो सवाल उठता है आज हम कौन से न्याय कर रहे है। हमें अपने आपको जागरूक होने के अलावा हमें अपने आस पास के लोगों को भी जागरूक करने की आवश्यकता है साथ मे हमे किसी भी बात को खुले दिमाग से सोचने की आवश्यकता है।

क्योंकि हमारे दिमाग का खुलापन नही होना हमें आगे बढ़ने से रोक रहा है क्योंकि जैसे ही आप किसी भी मुद्दे पर बात करे उसपर अलग अलग लोगों की मुख़्तलिफ़ विचार मिलेंगे कोई विरोध करेगा कोई समर्थन करेगा और हम यही मात खाते है क्योंकि हमारे संगठनों के कर्ता धर्ता भी यह सोच नही पाते है क्या सही होगा क्या गलत क्योंकि किसी भी मुद्दे पर उनकी अपनी राय नही होती है क्योंकि ना तो इसके बारे में खुद सोचते है ना ही अलग विचातधाराओ को पढ़कर अपनी राय बना पाते है। और यही वजह है कि हमारे लोग असमंजस की स्थिति में रहते है और जबतक आप किसी भी मुद्दे पर अपनी राय नही बनाएंगे तबतक आप दूसरों को सलाह देने की स्थिति में नही होते है। जब आप सलाह देने की स्थिति में नही होते है तबतक आप समाज का नेतृत्व नही कर सकते है। किसी भी मुद्दे पर आप बिना सोचे समझे अगर अपनी राय रखते है वो भी दो टूक जैसे ‘यह नही हो सकता है’, ‘इसका कोई मतलब नही है’ तो यकीन मानिए आप बौद्धिक रूप से समृद्ध नही है। क्योंकि आप किसी भी मुद्दे को सामाजिक तौर पर क्या प्रभाव डालेगा उसके ऊपर मंथन किये बिना अपनी राय नही दे सकते है।

हो सकता है कईयों को मेरी यह बातें बुरी लगे लेकिन हम सबकों मिलकर सोचना पड़ेगा कि समाज कैसे आगे बढ़ेगा खासकर मैं अपने सभी पढ़े लिखें आगे बढ़े हुए दोस्तों से आग्रह करना चाहता हूँ कि आप आगे आइए अपने आपको समाज के लिए कुछ समय दे और अपने हिसाब से आप कोशिश कर सकते है समाज मे अपना रास्ता बनाने के लिए जरूरी नही की आप किसी संगठन में पदस्थापित हो तभी ऐसा होगा मुझे लगता है कि ऐसा नही है जागरूकता फैलाना और समाज के बीच मे बारंबार जाना और उसकी कमियों को उजागर करना महत्वपूर्ण है हो सकता है इसके लिए आप खुद को अपेक्षित महसूस करेंगे लेकिन आपको, अपने आप को प्रोत्साहित रखने के उपाय ढूँढने होंगे उसमें खुद आपको रचनात्मकता ढूंढ़नी पड़ेगी। तभी समाज की भलाई संभव है।

धन्यवाद।
शशि धर कुमार

What is Gotra – गोत्र क्या है?

What is Gotraगोत्र विवाह आदि संस्कारों में और साधारणतया सभी धार्मिक कामों में गोत्र प्रवर और शाखा आदि की आवश्यकता हुआ करती है।
गोत्र मोटे तौर पर उन लोगों के समूह को कहते हैं जिनका वंश एक मूल पुरुष पूर्वज से अटूट क्रम में जुड़ा है। व्याकरण के प्रयोजनों के लिये पाणिनि में गोत्र की परिभाषा है ‘अपात्यम पौत्रप्रभ्रति गोत्रम्’ (४.१.१६२), अर्थात ‘गोत्र शब्द का अर्थ है बेटे के बेटे के साथ शुरू होने वाली संतान्। गोत्र, कुल या वंश की संज्ञा है जो उसके किसी मूल पुरुष के अनुसार होती है। गोत्र को हिन्दू लोग लाखो हजारो वर्ष पहले पैदा हुए पूर्वजो के नाम से ही अपना गोत्र चला रहे हैंं।

गोत्रीय तथा अन्य गोत्रीय
भारत में हिंदू विधि के मिताक्षरा तथा दायभाग नामक दो प्रसिद्ध सिद्धांत हैं। इनमें से दायभाग विधि बंगाल में तथा मिताक्षरा पंजाब के अतिरिक्त शेष भारत में प्रचलित है। पंजाब में इसमें रूढ़िगत परिवर्तन हो गए हैं। मिताक्षरा विधि के अनुसार रक्तसंबंधियों के दो सामान्य प्रवर्ग हैं :

(१) गोत्रीय अथवा गोत्रज सपिंड, और
(२) अन्य गोत्रीय अथवा भिन्न गोत्रीय अथवा बंधु।
हिंदू विधि के मिताक्षरा सिद्धांत के अनुसार रक्त संबंधियों को दो सामान्य प्रवर्गों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम प्रवर्ग को गोत्रीय अर्थात् ‘सपिंड गोत्रज’ कहा जा सकता है। गोत्रीय अथवा गोत्रज सपिंड वे व्यक्ति हैं जो किसी व्यक्ति से पितृ पक्ष के पूर्वजों अथवा वंशजों की एक अटूट श्रृखंला द्वारा संबंधित हों। वंशपरंपरा का बने रहना अत्यावश्यक है। उदाहरणार्थ, किसी व्यक्ति के पिता, दादा और परदादा आदि उसके गोत्रज सपिंड या गोत्रीय हैं। इसी प्रकार इसके पुत्र पौत्रादि भी उसके गोत्रीय अथवा गोत्रज सपिंड हैं, या यों कहिए कि गोत्रज सपिंड वे व्यक्ति हैं जिनकी धमनियों में समान रक्त का संचार हो रहा हो।

रक्त-संबंधियों के दूसरे प्रवर्ग को ‘अन्य गोत्रीय’ अथवा भिन्न गोत्रज सपिंड या बंधु भी कहते हैं। अन्य गोत्रीय या बंधु वे व्यक्ति हैं जो किसी व्यक्ति से मातृपक्ष द्वारा संबंधित होते हैं। उदाहरण के लिये, भानजा अथवा भतीजी का पुत्र बंधु कहलाएगा।

गोत्रीय से आशय उन व्यक्तियों से है जिनके आपस में पूर्वजों अथवा वंशजों की सीधी पितृ परंपरा द्वारा रक्तसंबंध हों। परंतु यह वंश परंपरा किसी भी ओर अनंतता तक नहीं जाती। यहाँ केवल वे ही व्यक्ति गोत्रीय हैं जो समान पूर्वज की सातवीं पीढ़ी के भीतर आते हैं। हिंदू विधि के अनुसार पीढ़ी की गणना करने का जो विशिष्ट तरीका है वह भी भिन्न प्रकार का है। यहाँ व्यक्ति को अथवा उस व्यक्ति को अपने आप को प्रथम पीढ़ी के रूप में गिनना पड़ता है जिसके बार में हमें यह पता लगाना है कि वह किसी विशेष व्यक्ति का गोत्रीय है अथवा नहीं। उदाहरण के लिये, यदि ‘क’ वह व्यक्ति है जिसके पूर्वजों की हमें गणना करनी है तो ‘क’ को एक पीढ़ी अथवा प्रथम पीढ़ी के रूप में गिना जायगा। उसके पिता दूसरी पीढ़ी में तथा उसके दादा तीसरी पीढ़ी में आएँगे और यह क्रम सातवीं पीढ़ी तक चलेगा। ये सभी व्यक्ति ‘क’ के गोत्रीय होंगे। इसी प्रकार हम पितृवंशानुक्रम में अर्थात् पुत्र पौत्रादि की सातवीं पीढ़ी तक, अर्थात् ‘क’ के प्रपौत्र के प्रपौत्र तक, गणना कर सकते हैं। ये सभी गोत्रज सपिंड हैं परंतु केवल इतने ही गोत्रज सपिंड नहीं हैं। इनके अतिरिक्त सातवीं पीढ़ी तक, जिसकी गणना में प्रथम पीढ़ी के रूप में पिता सम्मिलित हैं, किसी व्यक्ति के पिता के अन्य पुरुष वंशज अर्थात् भाई, भतीजा, भतीजे के पुत्रादि भी गोत्रज सपिंड हैं। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के दादा के छ: पुरुष वंशज और परदादा के पिता के छ: पुरुष वंशज भी गोत्रज सपिंड हैं। हम इन छ: वंशजों की गणना पूर्वजावलि के क्रम में तब तक करते हैं जब तक हम ‘क’ के परदादा के परदादा के छ: पुरुष वंशजों को इसमें सम्मिलित नहीं कर लेते। इस वंशावलि में और गोत्रज सपिंड भी सम्मिलित किए जा सकते हैं जैसे ‘क’ की धर्मपत्नी तथा पुत्री और उसका दौहित्र। ‘क’ के पितृपक्ष के छह वंशजों की धर्मपत्नियाँ अर्थात् उसकी माता, दादी, परदादी और उसके परदादा के परदादा की धर्मपत्नी तक भी गोत्रज सपिंड हैं।

जिनके गोत्र ज्ञात न हों उन्हें ‘काश्यप’ गोत्रीय माना जाता है।

सगोत्र विवाह भारतीय वैदिक परम्परा मे निषिद्ध माना जाता है। गोत्र शब्द का प्रयोग वैदिक ग्रंथों में कहीं दिखायी नही देता। सपिण्ड (सगे बहन भाइ) के विवाह निषेध के बारे में ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 10वें सूक्त मे यम यमि जुडवा बहन भाइ के सम्वाद के रूप में आख्यान द्वारा उपदेश मिलता है। यमी अपने सगे भाई यम से विवाह द्वारा संतान उत्पन्न करने की प्रबल इच्छा प्रकट करती है। परन्तु यम उसे यह अच्छे तरह से समझाता है कि ऐसा विवाह प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होता है।
“सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति” ऋ10/10/2 (“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होने की सम्भावना होती है।”)‌ इस विषय पर स्पष्ट जानकारी पाणिनी कालीन भारत से भी मिलती है। अष्टाध्यायी के अनुसार “ अपत्यं पौत्र प्रभृति यद गोत्रम् “, एक पुरखा के पोते, पड़पोते आदि जितनी संतान होगी वह एक गोत्र की ही कही जायेगी।

“सगापन सातवीं पीढी में समाप्त हो जाता है और घनिष्टपन जन्म और नाम के ज्ञात ना रहने पर छूट जाता है।” आधुनिक जेनेटिक अनुवांशिक विज्ञान के अनुसार inbreeding multiplier अंत:प्रजनन से उत्पन्न विकारों की सम्भावना का वर्धक गुणांक इकाई से यानी एक से कम सातवीं पीढी मे जा कर ही होता है। गणित के समीकरण के अनुसार, अंत:प्रजनन विकार गुणांक= (0.5)raised to the power Nx100, (N पीढी का सूचक है।) पहली पीढी मे N=1,से यह गुणांक 50 होगा, छटी पीढी मे N=6 से यह गुणांक 1.58 हो कर भी इकाई से बड़ा रहता है। सातवी पीढी मे जा कर N=7 होने पर ही यह अंत:प्रजनन गुणांक 0.78 हो कर इकाई यानी एक से कम हो जाता है। मतलब साफ है कि सातवी पीढी के बाद ही अनुवांशिक रोगों की सम्भावना समाप्त होती है। यह एक अत्यंत विस्मयकारी आधुनिक विज्ञान के अनुरूप सत्य है जिसे हमारे पुरुखों ने सपिण्ड विवाह निषेध कर के बताया था।

सपिण्ड विवाह निषेध भारतीय वैदिक परम्परा की विश्व भर मे एक अत्यन्त आधुनिक विज्ञान से अनुमोदित व्यवस्था है। पुरानी सभ्यता चीन, कोरिया, इत्यादि मे भी गोत्र /सपिण्ड विवाह अमान्य है. परन्तु मुस्लिम और दूसरे पश्चिमी सभ्यताओं मे यह विषय आधुनिक विज्ञान के द्वारा ही लाया जाने के प्रयास चल रहे हैं. एक जानकारी भारत वर्ष के कुछ मुस्लिम समुदायों के बारे मे भी पता चली है। ये मुसलमान भाई मुस्लिम धर्म मे जाने से पहले के अपने हिंदु गोत्रों को अब भी याद रखते हैं और विवाह सम्बंध बनाने समय पर सगोत्र विवाह नही करते।

माना जाता है, कि मूल पुरुष ब्रह्मा के चार पुत्र हुए, भृगु, अंगिरा, मरीचि और अत्रि। भृगु के कुल मे जमदग्नि, अंगिरा के गौतम और भरद्वाज, मरीचि के कश्यप,वसिष्ट एवं अत्रि के विश्वामित्र हुए। इस प्रकार जमदग्नि, गौतम, भरद्वाज, कश्यप, वसिष्ट, अगस्त्य और विश्वामित्र ये सात ऋषि आगे चल कर गोत्रकर्ता या वंश चलाने वाले हुए। आधुनिक काल मे जनसंख्या वृद्धि से उत्तरोत्तर समाज, आज इतना बडा हो गया है कि सगोत्र होने पर भी सपिंड न होंने की सम्भावना होती है। इस लिए विवाह सम्बंध के लिए आधुनिक काल मे अपना गोत्र छोड़ देना आवश्यक नही रह गया है. परंतु सगोत्र होने पर सपिण्ड की परीक्षा आवश्यक हो जाती है.यह इतनी सुगम नही होती। सात पीढी पहले के पूर्वजों की जानकारी साधारणत: उपलब्ध नही रह्ती। इसी लिए सगोत्र विवाह न करना ही ठीक माना जाता है। इसी लिए 1955 के हिंदु विवाह सम्बंधित कानून मे सगोत्र विवाह को भारतीय न्याय व्यवस्था मे अनुचित नही माना गया। परंतु अंत:प्रजनन की रोक के लिए कुछ मार्ग निर्देशन भी किया गया है। गोत्र या दूसरे प्रचलित नामों, उपाधियों को बिना विवेक के सपिण्ड निरोधक नही समझना चाहिये।

गोत्र शब्द का प्रयोग वैदिक ग्रंथों मे कहीं दिखायी नही देता।

आर्यसमाज की परम्परा में गुण कर्म स्वभाव‌ पर आधारित वर्ण व्यवस्था पर ही सारा जोर दिया जाता है | परम्परा से चली आ रही रीतियां कोई विशेष महत्त्व नहीं रखती हैं |उनका महत्व उतना ही है जिससे आपकी ऐतिहासिक परमपराओं का आपको ज्ञान हो सके | गोत्र की आवश्यक्‍ता केवल विवाह आदि ही के निर्धारण में, इनमें ली जाने वाली सावधानियों हेतु आवश्यक है। अन्यथा इनका महत्त्व विशेष नहीं लगता है। आर्यसमाजी इन सब बखेड़ों में भी कम ही पड़ते हैं |

Bhim Rao Ambdkar – भीम राव अंबेडकर

भारत रत्न भीमराव रामजी आंबेडकर (१४ अप्रैल, १८९१ – ६ दिसंबर, १९५६) बाबासाहब के नाम से लोकप्रिय, भारतीय विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाजसुधारक के नाम से मशहूर बाबासाहेब की जयंती की हार्दिक बधाई!

डॉ अम्बेडकरआशा करते है बाबा साहेब द्वारा कृत संविधान हम सबको एक निश्चित और सामान अधिकार दिलाने में अभी तक कामयाब रहा होगा। मैं यहाँ उन बातो को बताना नहीं चाहता हूँ की किनकी वजह से यह नहीं मिला और किनकी वजह से यह मिला। लेकिन संविधान ने हमे बहुत कुछ ऐसा दिया है जिनसे हम अपनी ज़िन्दगी कैसे बेहतर कर सके, हम अपने अधिकारो की रक्षा कैसे करे, हमारे कर्तव्य क्या क्या है इत्यादि जो बाबा साहेब ने 70 साल पहले सोचा आज भी वह उतना ही अक्षरश सत्य है जितना 40 साल या 70 साल पहले। तो आज हमे इस बात को जानने में ज्यादा विश्वास दिखाना चाहिए की एक व्यक्ति की वजह से एक आम आदमी को इतना अच्छा संविधान मिला है, यह उनकी दूरदर्शिता का कमाल है।

आपको ध्यान रखना है की कौन क्षद्म रूप से आपको बरगलाने की कोशिश में लगा हुआ है ऐसे लोगो को बेनकाब करने की जरुरत है। क्योंकि कोई भी क्षद्म रूप किसी भी समाज के लिए कही सही नहीं होता है।

बाबा साहेब के बारे में जो आज़ादी से लेकर आजतक चित्र प्रस्तुत किया गया उसमे सिर्फ एक संविधान निर्माता के रूप में प्रस्तुत किया गया, लेकिन अगर कोई उनके प्रोफाइल को चेक करेगा तो पता चलेगा जिस व्यक्ति को राष्ट्र निर्माता के रूप में पदस्थापित करना था वह एक संविधान निर्माता के रूप में या दलित राजनीतिज्ञ के रूप में रह गए।

पंडित जी ने जब अंतरिम सरकार बनाने के लिए 32 लोगो का चयन किया था तो उसमे अम्बेडकर साहेब नहीं थे लेकिन जैसे ही उस लिस्ट को लेकर गांधीजी के पास पहुंचे तो गांधीजी ने पूछा की अम्बेडकर का नाम क्यों नहीं है तो पंडित जी और पटेल जी बगले झाँकने लगे तो गांधीजी ने एक बात कही “नेहरु एक बात बताओ की अम्बेडकर से बढ़कर कोई आज की तारीख में कानून को जानता हो, तो बताओ”।

उन्होंने दलित बौद्ध आंदोलन को प्रेरित किया और दलितों के खिलाफ सामाजिक भेद भाव के विरुद्ध अभियान चलाया। श्रमिकों और महिलाओं के अधिकारों का समर्थन किया। वे स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री एवं भारतीय संविधान के प्रमुख वास्तुकार थे। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने विधि, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान के शोध कार्य में ख्याति प्राप्त की। जीवन के प्रारम्भिक करियर में वह अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे एवम वकालत की। बाद का जीवन राजनीतिक गतिविधियों में बीता। 1990 में, उन्हें भारत रत्न, भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से मरणोपरांत सम्मानित किया गया था।

शिक्षित बनो ! संगठित रहो! और संघर्ष करो!। यह सिर्फ एक नारा नहीं है अगर गौर करे तो यह एक ऐसी लाइन है जिसमे उपेक्षित समाज के जिंदगी को लिखा गया है लेकिन यहाँ ध्यान रखने वाली बात यह है की यह लाइन कही से से आगे पीछे ना होने पाए यह जैसे है वैसे ही अपनी जिंदगी में सार्थक करने का प्रयास करना चाहिए कहने का मतलब है की अगर पहली लाइन शिक्षित बनो लिखा है तो पहले शिक्षित बनिए दूसरी लाइन संगठित रहो है तो पहले आपको शिक्षित होना है फिर संगठित होना अगर शिक्षित होंगे तभी बिना किसी स्वार्थ के संगठित रह पायेंगे अगर शिक्षित ही नहीं बनेंगे तो संगठित होने का मतलब नहीं समझ पायेंगे। आखिर में तीसरी लाइन संघर्ष करो लिखा है तो पहले शिक्षित बनिए फिर संगठित रहिये फिर आप संघर्ष कर पाएंगे क्योंकी अगर आप शिक्षित नहीं होंगे तो संगठित नहीं हो पाएंगे और अगर बिना शिक्षित हुए संगठित होकर संघर्ष करेंगे तो आपको संघर्ष करने के बाद करना क्या है उसका मतलब नहीं समझ आएगा। तो लाइन में कही भी कोई बदलाव नहीं होना चाहिए अगर आप इसको उल्टा और अगर स्थान बदलने की कोशिश करेंगे तो भी उपेक्षित समाज का उत्थान संभव नहीं है जो लाइन है जैसे है वैसे ही अपने जीवन में ढालने का प्रयास करे तभी अगर आप उपेक्षित है या उस समाज से आता है तभी आप अपना या अपने समाज का भला कर पाएंगे।

शिक्षा ही एक मात्र उपाय है उत्थान का, उसके महत्त्व को समझिये और सबको समझाइए।

अंत में उनका एक वाक्य है जो सभी को पढ़ना चाहिए “मंदिर जाने से आपका कल्याण होगा ही, यह नही कहा जा सकता। लेकिन राजनीतिक अधिकारों का उपयोग जीवन में सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के लिए करना चाहिए।” – डॉ अम्बेडकर, 28 सितंबर 1932 वर्ली, मुंबई

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धन्यवाद
शशि धर कुमार

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