A leading caste in Bihar & Jharkhand

Daily archive for March 3, 2019

सामाजिक समरसता Social Harmony

सामाजिक समरसता के विभिन्न पहलुओं को महात्मा गांधी ने अपने विचारों का विषय बनाया था और उन्होंने अपने लेखन और कर्म से समाज में परिवर्तन को संभव कर दिखाया। सामाजिक समरसता के जाति, धर्म, भाषा, वर्ग, लिंग और श्रम जैसे विषयों पर उन्होंने हमेशा अपनी राय रखी और समाज में परिवर्तन के प्रति अपनी उत्कंठा प्रकट की। अपने समस्त विचारों और कार्यों में उन्होंने सामाजिक समरसता के लिए प्रयास किया। सामाजिक समरसता के अपने प्रयास में उन्होंने अपने अभियान को घृणा, निंदा के आधार पर नहीं अपितु सत्याग्रह के आधार पर चलाया। अपने से इतर का सम्मान एवं आपसी संवाद ही उनका मुख्य साधन रहा। सामाजिक समरसता के वर्तमान प्रयासों में इस दृष्टि का समावेश हमें करना होगा।

एक विकासनशील समाज निरंतर अपने आप को बदलता रहता है और अपनी परंपरा को पुनर्व्याख्यायित करता रहता है तथा नवीन विचारों को अपने पैमानों के आधार पर स्वीकारने की कोशिश करता रहता है। भारतीय समाज ने निरंतर इस प्रक्रिया को स्वीकार किया है। वह एक ओर अपने परंपरागत मूल्यों को आधुनिक संदर्भों में पुनर्व्याख्यायित करता रहा है तो दूसरी ओर वह आधुनिक विमर्शों को भी स्वीकार करता रहा है।

एक सामाजिक व्यक्ति के निर्माण के लिए गाँधी जी ने निम्नलिखित व्रतों की धारणा प्रस्तुत की थी –

  1. सत्य
  2. अहिंसा
  3. ब्रह्मचर्य
  4. अस्तेय
  5. अपरिग्रह
  6. शरीर-श्रम
  7. अस्वाद
  8. अभय
  9. सर्वधर्म समानत्व
  10. स्वदेशी
  11. स्पर्शभावना

ये व्रत व्यक्तिगत गुण ही नहीं बल्कि सामाजिक गुण भी है। इनका जीवन में प्रयोग न केवल व्यक्तिगत रूपांतरण का अपितु सामाजिक रूपांतरण का भी माध्यम बन सकता है। स्वयं गांधीजी का जीवन इस बात का प्रमाण है कि इनमें से किसी भी एक व्रत का स्वीकार स्वमेव अन्य व्रतों को समाहित करता है। अहिंसा का उनका आग्रह उन्हें न केवल एक अहिंसक व्यक्तित्व बनाता है अपितु अहिंसा को सामाजिक क्षेत्र में लागू करने को भी प्रेरित करता है। व्यक्ति और समाज की संपन्नता एवं उसका सर्वांगीण विकास हेतु मनुष्य को मूलभूत आवश्यकताओं का निर्धारण कर उसकी पूर्ति हेतु अनिवार्यता का विश्लेषण करते रहना चाहिए। गांधीजी का उद्देश्य एक अहिंसक समाज का विकास था। अतएव उन्होंने हर उस प्रथा का, विशेषाधिकार, एकाधिकार का विरोध किया जो किसी भी शोषण, दमन, हिंसा, उत्पीड़न पर आधारित हो।

वे शारीरिक एवं मानसिक श्रम के बीच की खाईं को भी समाप्त करने की बात कहते थे। उन्होंने इस बात को गहराई से देखा और विश्लेषित किया कि समाज लगातार इन दोनों श्रम रूपों में बँटा हुआ है। तात्कालीन शिक्षा व्यवस्था इस खाईं को और चौड़ा करती जा रही है। बौद्धिक तबके द्वारा बहुसंख्यक श्रमशील जनता का तिरस्कार एक अस्वस्थ समाज की निशानी है। अतः वे हर एक व्यक्ति से यह आशा करते हैं कि वह शरीर-श्रम करे। अपने आदर्श समाज में वह यह कल्पना करते हैं कि सभी बौद्धिक वर्ग शरीर-श्रम करेंगे और इसके जरिए अपनी आजीविका कमाएँगे।

इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए गांधी जी एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की व्यवस्था चाहते हैं, जिसमे स्थानीय हस्तकला, शिल्प उद्योग के जरिए शिक्षा देने का प्रावधान किया गया था। इसका तात्पर्य था कि शिक्षा में श्रमशील जनता के अनुभव का प्रवेश हो साथ ही शिक्षार्थी एक अमूर्त समाज के स्थान पर मूर्त समाज की समस्याओं, अनुभवों से शिक्षा प्राप्त कर सके। यह शिक्षा व्यवस्था उसे शिक्षित होने के बाद अपने समाज से न तो काटती है और न ही श्रमशील समाज को हेय दृष्टि से देखना सिखाती है।

गांधीजी ने भारतीय समाज के एक और भेद को अपने विचार का विषय बनाया, वह है – ग्रामीण-शहरी का भेद। उनके लिए भारत का अर्थ ही है – सात लाख गाँव। वह तात्कालिक समय में विद्यमान गाँवों को वैसा ही नहीं रहना देना चाहते हैं अपितु गाँवों को सामाजिक पुनर्रचना का आधार बनाते हुए उनमें क्रांतिकारी बदलाव चाहते हैं। गाँवों में विद्यमान विभिन्न समस्याओं – अस्वच्छता, छुआछूत, अशिक्षा, बेरोजगारी आदि में व्यापक बदलाव लाना चाहते हैं। उनकी इच्छा है कि शहर गाँवों का शोषण करना बंद कर दे।

इसे उनकी सामाजिक आचार संहिता भी कहा जा सकता है। इसके साथ ही गांधीजी सामाजिक समरसता के लिए रचनात्मक कार्यक्रम भी प्रस्तुत करते हैं –

  1. कौमी एकता
  2. अस्पृश्यता-निवारण
  3. शराबबंदी
  4. खादी
  5. दूसरे ग्रामोद्योग
  6. गाँवों की सफाई
  7. नई या बुनियादी तालीम
  8. बड़ों की तालीम
  9. स्त्रियाँ
  10. आरोग्य के नियमों की शिक्षा
  11. प्रांतीय भाषाएँ
  12. राष्ट्रभाषा
  13. आर्थिक समानता
  14. किसान
  15. मजदूर
  16. आदिवासी
  17. कोढ़ी
  18. विद्यार्थी

साधारण से प्रतीत होने वाले रचनात्मक कार्यक्रम समाज की पुनर्रचना के आधार थे। रचनात्मक कार्यक्रम के जरिए गांधीजी भारतीयों को शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तौर पर नई दिशा की ओर उन्मुख करना चाह रहे थे जिससे वे न केवल ब्रिटिश सत्ता से मुक्त हो सकें अपितु हिंसक आधुनिक सभ्यता के पाश से भी छूट सकें। रचनात्मक कार्यक्रम अहिंसात्मक सिद्धांतों पर समाज में बदलाव का एक सर्वांगीण दृष्टिकोण है।

अतः यह हमारा कर्तव्य है कि हम हमारे समय की इन समस्याओं को दूर करने हेतु गांधीजी जैसे विचारकों के प्रयासों को फलीभूत करने करने का प्रयास करें।

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