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Monthly archive for March 2019

Overall Development – समावेशी विकास

अनावश्यक, अनुपयोगी, अवाँछनीय, आवश्यकताओं को लोग बढ़ाते जा रहे हैं। इन बढ़ी हुई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिक धन की आवश्यकता पड़ती है। अधिक धन कमाने के लिए अधिक परिश्रम, अधिक चिन्ता और अधिक अनीति बरतनी पड़ती है। ईमानदारी और उचित मार्ग से मनुष्य एक सीमित मर्यादा में पैसा कमा सकता है। उससे इतना ही हो सकता है कि जीवन का साधारण क्रम यथावत् चल सके। अन्न, वस्त्र, घर, शिक्षा, आतिथ्य आदि की आवश्यकताओं भर के लिए आसानी से कमाया जा सकता है, पर इन बढ़ी हुई अनन्त आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे हो?

हमने अनावश्यक जरूरतों को अन्धाधुन्ध बढ़ा लिया है। फैशन के नाम पर अनेकों विलासिता की चीजें खरीदी जाती हैं इंग्लैण्ड के ठंडे प्रदेश में जिन चीजों की जरूरत पड़ती थी वे फैशन के नाम पर हमारे गरम देश में भी व्यवहृत होती हैं। सादा के स्थान पर भड़कदार, कम मूल्य वाली के स्थान पर अधिक मूल्य वाली खरीदना आज एक बड़प्पन का चिह्न समझा जाता है। शारीरिक श्रम करके पैसे बचा लेना असभ्यता का चिह्न समझा जाता है। इस प्रकार आकर्षक वस्तुओं की तड़क भड़क की ओर आकर्षित होने के कारण अधिक पैसे कमाने की जरूरत पड़ती है।

विवाह शादियों में, मृतभोजों तथा अन्य उत्सवों पर अनावश्यक खर्च किये जाते हैं। अपने को अमीर साबित करने के लिए फिजूल खर्ची का आश्रय लिया जाता है। जो जितनी बेपरवाही से जितना अधिक पैसा खर्च कर सकता है वह उतना ही बड़ा अमीर समझा जाता है। विवाह शादी के समय ऐसी बेरहमी के साथ पैसा लुटाया जाता है जिससे अनेकों व्यक्ति सदा के लिए कर्जदार ओर दीन हीन बन जाते हैं। जिनके पास लुटाने को, दहेज देने को धन नहीं उनकी सन्तान का उचित विवाह होना कठिन हो जाता है। समाज में वे ही प्रतिष्ठित और बड़े समझे जाते हैं, जिनके पास अधिक धन है।

आज के मनुष्य का दृष्टि कोण अर्थप्रधान हो गया है। उसे सर्वोपरि वस्तु धन प्रतीत होता है और उसे कमाने के लिए बेतरह चिपटा हुआ है। इस मृग तृष्णा में सफलता सबको नहीं मिल सकती। जो अधिक सक्षम, क्रिया कुशल, अवसरवादी एवं उचित अनुचित का भेद न करने वाले होते हैं वे ही चन्द लोग बाजी मार ले जाते हैं। शेष को जी तोड़ प्रयत्न करते हुए भी असफल ही रहना पड़ता है। कारण यह है कि परमात्मा ने धन उतनी मात्रा में पैदा किया है जिससे समान रूप से सबकी साधारण आवश्यकताएं पूरी हो सकें। छीना झपटी में कुछ आदमी अधिक ले भागें तो शेष को अभावग्रस्त रहना पड़ेगा। उनमें से कुछ के पास कामचलाऊ चीजें होंगी तो कुछ बहुत दीन दरिद्र रहेंगे। यह हो नहीं सकता कि सब लोग अमीर बन जावें।

आज गरीब भिखमंगे से लेकर, लक्षाधीश धन कुबेर तक, ब्रह्मचारी से लेकर संन्यासी तक लोगों की वृत्तियाँ धन संचय की ओर लगी हुई हैं। जब कोई एक उद्देश्य, प्रधान हो जाता है तो और सब बातें गौण हो जाती हैं। आज जन साधारण का मस्तिष्क, देश, जाति, धर्म, सेवा, स्वास्थ्य, कला, संगीत, साहित्य, संगठन, सुरक्षा, सुसन्तति, मैत्री, यात्रा, मनोरंजन आदि की ओर से हट गया है और धन की तृष्णा में लगा हुआ है। इतना होने पर भी धनवान तो कोई विरला ही बन पाता है पर इन, जीवन की अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकताओं से सबको वंचित रहना पड़ता है।

अब से पचास चालीस वर्ष पहले के समय पर हम दृष्टिपात करते है तो मालूम पड़ता है कि उस समय लोगों की दिनचर्या में धन कमाने के लिए जितना स्थान रहता था-उससे अधिक समय वे अन्यान्य बातों में खर्च किया करते थे। मनोरंजन खेल, संगीत, रामायण पढ़ना, किस्से कहानियाँ, पंचायतें, पैदल तीर्थ यात्राएं, सत्संग, परोपकार आदि के बहुत कार्यक्रम रहते थे। बालकों का बचपन-खेलकूद और स्वतंत्रता की एक मधुर स्मृति के रूप में उन्हें जीवन भर याद रहता था। पर आज तो विचित्र दशा है। छोटे बालक, प्रकृति माता की गोदी में खेलने से वंचित करके स्कूलों के जेलखाने में इस आशा से बन्द कर दिये जाते हैं कि बड़े होने पर वे नौकरी चाकरी करके कुछ अधिक धन कमा सकेंगे। लोग इन सब कामों की ओर से सामाजिक सहचर्य की दिशा से मुँह मोड़ कर बड़े रूखे, नीरस, स्वार्थी, एकाकी, वेमुरब्बत होते जाते हैं। जिसे देखो वही कहता है-“मुझे फुरसत नहीं?” भला इतने समय में करते क्या हो? शब्दों के हेर फेर से एक ही उत्तर मिलेगा-धन कमाने की योजना में लगा हुआ हूँ।

इस लाभ प्रधान मनोवृत्ति ने हमारा कितना सत्यानाश किया है इसकी ओर आँख उठाकर देखने की किसी को फुरसत नहीं। स्वास्थ्य चौपट हो रहे हैं, बीमारियाँ घर करती जा रही हैं,आयु घटती जा रही है, इन्द्रियाँ समय से पहले जवाब दे जाती हैं, चिन्ता हर वक्त सिर पर सवार रहती है, रात को पूरी नींद नहीं आती, चित्त अशान्त रहता है, कोई सच्चा मित्र नहीं जिसके आगे हृदय खोल कर रख सकें, चापलूस, खुदगर्ज, लुटेरे और बदमाश दोस्तों का भेष बना कर चारों ओर मंडराते हैं, स्त्री पुरुषों में एक दूसरे के प्रति प्राण देने की आत्मीयता नहीं, सन्तान की शिक्षा दीक्षा का कोई ठिकाना नहीं, अयोग्य लोगों के सहचर्य से उनकी आदतें बिगड़ती जा रही हैं। परिवार में मनोमालिन्य रहता है। मस्तिष्क में नाना प्रकार के भ्रम, जंजाल, अज्ञान अन्धविश्वास घुसे हुए हैं, चित्त में अहंकार, अनुदारता, काम, क्रोध, लोभ, मोह, असंयम का डेरा पड़ा हुआ है, समाज से श्रद्धा सहयोग और सहानुभूति की प्राण वायु नहीं मिलती, मनोरंजन के बिना हृदय की कली मुर्झा गई है। धर्म, त्याग, सेवा, परोपकार, सत्संग, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान के बिना आत्मा मुरझाई हुई पड़ी है। इस प्रकार जीवन की सभी दिशाएं अस्त व्यस्त हो जाती हैं, चारों ओर भयंकर आरण्य में निशाचर विचरण करते दिखाई पड़ते हैं। हर मार्ग में कूड़ा करकट झाड़ झंखाड़ पड़े दीखते हैं। कारण स्पष्ट है-मनुष्य ने धन की दिशा में इतनी प्रवृत्ति बढ़ाई है कि केवल उसी का उसे ध्यान रहा है और शेष सब ओर से उसने चित्त हटा लिया है। जिस दिशा में प्रयत्न न हो, रुचि न हो, आकाँक्षा न हो, उस दिशा में प्रतिकूल परिस्थितियों का ही विनिर्मित होना संभव है। उत्तम तो वही क्षेत्र बनता है जिस ओर मनुष्य श्रम और रुचि का आयोजन करता है।

अब से थोड़े समय पूर्व लोगों के पास अधिक धन न होता था, वे साधारण रीति से गुजारा करते थे, पर उनका जीवन सर्वांगीण सुख से परिपूर्ण होता था। वे थोड़ा धन कमाते थे पर एक एक पाई को उपयोगी कार्यों में खर्च करके उससे पूरा लाभ उठाते थे। आज अपेक्षाकृत अधिक धन कमाया जाता है पर उसे इस प्रकार खर्च किया जाता है कि उससे अनेकों शारीरिक एवं मानसिक दोष दुर्गुण उपज पड़ते हैं और क्लेश कलह की अभिवृद्धि होती है। सुख की उन्नति की आशा से-सब कुछ दाव पर लगाकर आज मनुष्य धन कमाने की दिशा में बढ़ रहा है पर उसे दुख और अवनति ही हाथ लगती है।

गृहस्थ संचालन के लिए धन कमाना आवश्यक है, इसके लिए शक्ति अनुसार सभी प्रयत्न करते हैं और करना भी चाहिए। क्योंकि भोजन, वस्त्र, गृह, शिक्षा, आतिथ्य, आपत्ति आदि के लिए धन आवश्यक है। पर जितनी वास्तविक आवश्यकता है उसे तो परिवार के सदस्य मिल जुल कर आसानी से कमा सकते है। दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहीं-हाय हाय तो मनुष्य धनवान बनने के लिए किया करता है। इस परिग्रह वृत्ति ने हमारे जीवन को एकाँगी, विशृंखलित एवं जर्जरीभूत कर दिया है। रोटी को हम नहीं खाते, रोटी हमें खाये जा रही है।

हमारा व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन बुरी दशा में है। उसमें अगणित दोषों का समावेश हो गया है। इसे सुधारने और संभलने के लिए हमारी अधिक से अधिक शक्तियाँ लगने की आवश्यकता है, यदि इस ओर ध्यान न दिया गया तो हम सब निकट भविष्य में ऐसे गहरे गड्ढे में गिरेंगे कि उठना कठिन हो जायगा। चारों ओर से विपत्ति के बादल आ रहे है, यदि आत्म रक्षा का प्रयत्न न किया गया तो यह धन, जिसकी तृष्णा से सिर उठाने के लिए फुरसत नहीं, यही एक भारी विपत्ति बन जायगा। हमें बेतरह लुटना पड़ेगा।

खुदगर्जियों को छोड़िये, “अपने मतलब से मतलब” रखने की नीति से मुँह मोड़िए, धनी बनने की नहीं-महान् बनने की महत्वाकाँक्षाएं कीजिए, आवश्यकताएं घटाइए, जोड़ने के लिए नहीं जरूरत पूरी करने के लिए कमाइए, शेष समय और शक्ति को सर्वांगीण उन्नति के पथ पर लगने दीजिए। संचय का भौतिक आदर्श-परिश्रमी सभ्यता का है, भारतीय आदर्श त्याग प्रधान है, इसमें अपरिग्रह का महत्व है, जो जितना संयमी है, जितना संतोषी है वह उतना ही महान बताया गया है। क्योंकि जो निजी आवश्यकताओं से शक्ति को बचा लेगा वही तो परमार्थ में लगा सकेगा। हम मानते हैं कि जीवन विकास के लिए पर्याप्त साधन सामग्री मनुष्य के पास होनी चाहिए। पर वह तो योग्यता और शक्ति की वृद्धि के साथ साथ प्राप्त होती है। आज लोग योग्यताओं को, शक्तियों को बढ़ाने की दिशा में प्रयत्न नहीं करते वरन् जो कुछ लंगड़ी लूली शक्ति है उसको धन की मृगतृष्णा पर स्वाहा किये दे रहे हैं। नगण्य, लंगड़ी लूली शक्तियों से अधिक धन कमाया जाना असंभव है। ऐसे लोगों के लिए तो बेईमानी ही अधिक धन कमाने का एक मात्र साधन होता है।

आइए, मनुष्य जीवन का वास्तविक आनन्द उठाने की दिशा में प्रगति करें। धन लालसा के संकीर्ण दायरे से ऊपर उठें, अपनी आवश्यकताओं को कम करें और जो शक्ति बचे उसे शारीरिक, सामाजिक एवं आत्मिक सम्पदाओं की वृद्धि में लगावें, उस के द्वारा ही सर्वांगीण सुख शान्ति का आस्वादन किया जा सकेगा।

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सामाजिक समरसता Social Harmony

सामाजिक समरसता के विभिन्न पहलुओं को महात्मा गांधी ने अपने विचारों का विषय बनाया था और उन्होंने अपने लेखन और कर्म से समाज में परिवर्तन को संभव कर दिखाया। सामाजिक समरसता के जाति, धर्म, भाषा, वर्ग, लिंग और श्रम जैसे विषयों पर उन्होंने हमेशा अपनी राय रखी और समाज में परिवर्तन के प्रति अपनी उत्कंठा प्रकट की। अपने समस्त विचारों और कार्यों में उन्होंने सामाजिक समरसता के लिए प्रयास किया। सामाजिक समरसता के अपने प्रयास में उन्होंने अपने अभियान को घृणा, निंदा के आधार पर नहीं अपितु सत्याग्रह के आधार पर चलाया। अपने से इतर का सम्मान एवं आपसी संवाद ही उनका मुख्य साधन रहा। सामाजिक समरसता के वर्तमान प्रयासों में इस दृष्टि का समावेश हमें करना होगा।

एक विकासनशील समाज निरंतर अपने आप को बदलता रहता है और अपनी परंपरा को पुनर्व्याख्यायित करता रहता है तथा नवीन विचारों को अपने पैमानों के आधार पर स्वीकारने की कोशिश करता रहता है। भारतीय समाज ने निरंतर इस प्रक्रिया को स्वीकार किया है। वह एक ओर अपने परंपरागत मूल्यों को आधुनिक संदर्भों में पुनर्व्याख्यायित करता रहा है तो दूसरी ओर वह आधुनिक विमर्शों को भी स्वीकार करता रहा है।

एक सामाजिक व्यक्ति के निर्माण के लिए गाँधी जी ने निम्नलिखित व्रतों की धारणा प्रस्तुत की थी –

  1. सत्य
  2. अहिंसा
  3. ब्रह्मचर्य
  4. अस्तेय
  5. अपरिग्रह
  6. शरीर-श्रम
  7. अस्वाद
  8. अभय
  9. सर्वधर्म समानत्व
  10. स्वदेशी
  11. स्पर्शभावना

ये व्रत व्यक्तिगत गुण ही नहीं बल्कि सामाजिक गुण भी है। इनका जीवन में प्रयोग न केवल व्यक्तिगत रूपांतरण का अपितु सामाजिक रूपांतरण का भी माध्यम बन सकता है। स्वयं गांधीजी का जीवन इस बात का प्रमाण है कि इनमें से किसी भी एक व्रत का स्वीकार स्वमेव अन्य व्रतों को समाहित करता है। अहिंसा का उनका आग्रह उन्हें न केवल एक अहिंसक व्यक्तित्व बनाता है अपितु अहिंसा को सामाजिक क्षेत्र में लागू करने को भी प्रेरित करता है। व्यक्ति और समाज की संपन्नता एवं उसका सर्वांगीण विकास हेतु मनुष्य को मूलभूत आवश्यकताओं का निर्धारण कर उसकी पूर्ति हेतु अनिवार्यता का विश्लेषण करते रहना चाहिए। गांधीजी का उद्देश्य एक अहिंसक समाज का विकास था। अतएव उन्होंने हर उस प्रथा का, विशेषाधिकार, एकाधिकार का विरोध किया जो किसी भी शोषण, दमन, हिंसा, उत्पीड़न पर आधारित हो।

वे शारीरिक एवं मानसिक श्रम के बीच की खाईं को भी समाप्त करने की बात कहते थे। उन्होंने इस बात को गहराई से देखा और विश्लेषित किया कि समाज लगातार इन दोनों श्रम रूपों में बँटा हुआ है। तात्कालीन शिक्षा व्यवस्था इस खाईं को और चौड़ा करती जा रही है। बौद्धिक तबके द्वारा बहुसंख्यक श्रमशील जनता का तिरस्कार एक अस्वस्थ समाज की निशानी है। अतः वे हर एक व्यक्ति से यह आशा करते हैं कि वह शरीर-श्रम करे। अपने आदर्श समाज में वह यह कल्पना करते हैं कि सभी बौद्धिक वर्ग शरीर-श्रम करेंगे और इसके जरिए अपनी आजीविका कमाएँगे।

इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए गांधी जी एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की व्यवस्था चाहते हैं, जिसमे स्थानीय हस्तकला, शिल्प उद्योग के जरिए शिक्षा देने का प्रावधान किया गया था। इसका तात्पर्य था कि शिक्षा में श्रमशील जनता के अनुभव का प्रवेश हो साथ ही शिक्षार्थी एक अमूर्त समाज के स्थान पर मूर्त समाज की समस्याओं, अनुभवों से शिक्षा प्राप्त कर सके। यह शिक्षा व्यवस्था उसे शिक्षित होने के बाद अपने समाज से न तो काटती है और न ही श्रमशील समाज को हेय दृष्टि से देखना सिखाती है।

गांधीजी ने भारतीय समाज के एक और भेद को अपने विचार का विषय बनाया, वह है – ग्रामीण-शहरी का भेद। उनके लिए भारत का अर्थ ही है – सात लाख गाँव। वह तात्कालिक समय में विद्यमान गाँवों को वैसा ही नहीं रहना देना चाहते हैं अपितु गाँवों को सामाजिक पुनर्रचना का आधार बनाते हुए उनमें क्रांतिकारी बदलाव चाहते हैं। गाँवों में विद्यमान विभिन्न समस्याओं – अस्वच्छता, छुआछूत, अशिक्षा, बेरोजगारी आदि में व्यापक बदलाव लाना चाहते हैं। उनकी इच्छा है कि शहर गाँवों का शोषण करना बंद कर दे।

इसे उनकी सामाजिक आचार संहिता भी कहा जा सकता है। इसके साथ ही गांधीजी सामाजिक समरसता के लिए रचनात्मक कार्यक्रम भी प्रस्तुत करते हैं –

  1. कौमी एकता
  2. अस्पृश्यता-निवारण
  3. शराबबंदी
  4. खादी
  5. दूसरे ग्रामोद्योग
  6. गाँवों की सफाई
  7. नई या बुनियादी तालीम
  8. बड़ों की तालीम
  9. स्त्रियाँ
  10. आरोग्य के नियमों की शिक्षा
  11. प्रांतीय भाषाएँ
  12. राष्ट्रभाषा
  13. आर्थिक समानता
  14. किसान
  15. मजदूर
  16. आदिवासी
  17. कोढ़ी
  18. विद्यार्थी

साधारण से प्रतीत होने वाले रचनात्मक कार्यक्रम समाज की पुनर्रचना के आधार थे। रचनात्मक कार्यक्रम के जरिए गांधीजी भारतीयों को शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तौर पर नई दिशा की ओर उन्मुख करना चाह रहे थे जिससे वे न केवल ब्रिटिश सत्ता से मुक्त हो सकें अपितु हिंसक आधुनिक सभ्यता के पाश से भी छूट सकें। रचनात्मक कार्यक्रम अहिंसात्मक सिद्धांतों पर समाज में बदलाव का एक सर्वांगीण दृष्टिकोण है।

अतः यह हमारा कर्तव्य है कि हम हमारे समय की इन समस्याओं को दूर करने हेतु गांधीजी जैसे विचारकों के प्रयासों को फलीभूत करने करने का प्रयास करें।

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