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Fanishwar Nath Renu -फणीश्वरनाथ रेणु

“आओ ! ओ तूफ़ान ! जब तक मुझे जड़ से नहीं उखाड़ फेंकोगे– मैं तुम्हारा मुकाबला करता रहूंगा।” ~ फणीश्वरनाथ रेणु

जीवनफणीश्वरनाथ रेणु
फणीश्वर नाथ ‘ रेणु ‘ का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया जिले में फॉरबिसगंज के पास औराही हिंगना गाँव में हुआ था जो अभी अररिया जिले में परता है। उस समय यह पूर्णिया जिले में था। उनकी शिक्षा भारत और नेपाल में हुई। प्रारंभिक शिक्षा फारबिसगंज तथा अररिया में पूरी करने के बाद रेणु ने मैट्रिक नेपाल के विराटनगर के विराटनगर आदर्श विद्यालय से कोईराला परिवार में रहकर की। इन्होने इन्टरमीडिएट काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1942 में की जिसके बाद वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। बाद में 1950 में उन्होने नेपाली क्रांतिकारी आन्दोलन में भी हिस्सा लिये जिसके बाद नेपाल में जनतंत्र की स्थापना हुई। पटना विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के साथ छात्र संघर्ष समिति में सक्रिय रूप से भाग लिया और जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति में अहम भूमिका निभाई। १९५२-५३ के समय वे भीषण रूप से रोगग्रस्त रहे थे जिसके बाद लेखन की ओर उनका झुकाव हुआ। उनके इस काल की झलक उनकी कहानी तबे एकला चलो रे में मिलती है। उन्होने हिन्दी में आंचलिक कथा की नींव रखी। सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय, एक समकालीन कवि, उनके परम मित्र थे। इनकी कई रचनाओं में कटिहार के रेलवे स्टेशन का उल्लेख मिलता है।

लेखनी
इनकी लेखन-शैली रुचिकर और वृहदात्मक थी जिसमें पात्र के प्रत्येक सोच का विवरण लुभावने तरीके से किया जाता था। पात्रों का चरित्र-निर्माण काफी तेजी से होता था। इनकी लगभग हर कहानी में पात्रों की सोच घटनाओं से प्रधान होती थी। एक आदिम रात्रि की महक  इसका एक बेहतरीन उदाहरण है। जय गंगा मैया या कोशी डायन जैसे रेपोर्तार्ज को आप पढेंगे तो ऐसा लगता ही नहीं की दशको पहले इसको लिखा गया हो

रेणु की कहानियों और उपन्यासों में उन्होंने आंचलिक जीवन के हर धुन, हर गंध, हर लय, हर ताल, हर सुर, हर सुंदरता और हर कुरूपता को शब्दों में बांधने की सफल कोशिश की है। उनकी भाषा-शैली में एक जादुई सा असर है जो पाठकों को अपने साथ सिर्फ बांध कर नहीं रखता बल्कि अपने कहानी की हिसाब से उसे अपने साथ बहा ले जाता है। रेणु एक अद्भुत कहानीकार थे और उनकी रचनाएँ पढते हुए लगता है मानों कोई कहानी सुना रहा हो या सामने से परदे पर मूवी चल रही हो। गाँव के जीवन के लोकगीतों का उन्होंने अपने कथा साहित्य में बड़ा ही सर्जनात्मक प्रयोग किया है। जिसकी झलक आपको मैला आँचल से लेकर आदिम रात्रि की महक तक में दिख जायेगी

इनका लेखन प्रेमचंद की सामाजिक यथार्थवादी परंपरा को आगे बढाता है और इन्हें आजादी के बाद का प्रेमचंद की संज्ञा भी दी जाती है। अपनी कृतियों में उन्होंने आंचलिक शब्दों जिस तरह प्रयोग किया है वह ऐसा लगता है जैसे आज पढ़ते वक़्त उनकी कही हुई शब्द सुनाई पड़ती हो।

साहित्यिक कृतियाँ
रेणु जी को जितनी ख्याति हिंदी साहित्य में अपने उपन्यास मैला आँचल से मिली, उसकी मिसाल मिलना दुर्लभ है। इस उपन्यास के प्रकाशन ने उन्हें रातो-रात हिंदी के एक बड़े कथाकार के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। कुछ आलोचकों ने इसे गोदान के बाद इसे हिंदी का दूसरा सर्वश्रेष्ठ उपन्यास घोषित दिया।
इनके कालजयी रचनाओ में से कुछ नाम यहाँ उधृत करना आवश्यक है:
मैला आंचल
परती परिकथा
जूलूस
दीर्घतपा
कितने चौराहे
पलटू बाबू रोड
मारे गये गुलफाम
लाल पान की बेगम
पंचलाइट
तबे एकला चलो रे
ठेस

संवदिया
एक आदिम रात्रि की महक
ठुमरी
अग्निखोर
अच्छे आदमी

जै गंगा मैया
कोशी डायन
ऋणजल-धनजल
नेपाली क्रांतिकथा
वनतुलसी की गंध
श्रुत अश्रुत पूर्वे

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