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सामाजिक मंथन मुम्बई में

सामाजिक मंथन मुम्बई मेंदिनांक 24 अप्रैल 2016 दिन रविवार को मुम्बई के शिद्धि विनायक मंदिर गार्डन में मुम्बई समिति के अध्य्क्ष श्री सुरेन्द्र मंडल जी की अगुवाई में सामाजिक मंथन मुम्बई में एक मीटिंग रखी गयी जिसकी अध्यक्षता खुद अध्यक्ष महोदय श्री सुरेंदर जी ने की और उनमे सभी उपस्थित व्यक्तियों द्वारा समाज के हित में निम्नलिखित बातो पर चर्चा किया गया:
1. एकता
2. शिक्षा
3. दहेज़मुक्त समाज
4. सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में सामाजिक बदलाव।
इन चार मुद्दों को लेकर आज की मीटिंग में सभी उपस्थित लोगो द्वारा अपनी अपनी राय रखी गयी, जिनमे यह भी एक अहम् मुख्य बिंदु पर विचार किया गया की कैसे सामाजिक समरसता का विस्तार किया जाये। इसके लिए कुछ सदस्यों ने यह भी सुझाव दिया की क्यों ना हम एक पम्पलेट छपवाये जिसमे हमारे मुख्य मुद्दे दर्शित हो और उनलोगो तो यह पहुंचाए जो वाकई में समाज का भला चाहते है और साथ साथ एक सहयोग राशि के नाम पर शुरू की गयी जो सभी सदस्यों को स्वेक्षा से देने को कहा जाये और किसी भी सामाजिक रूप में इन पैसो का उपयोग किया जाये जैसे गाँव में स्कूली बच्चों को मुफ़्त किताब, ड्रेस, या उन गरीब जिनको इलाज़ की सख्त आवश्यकता है उन्हें आर्थिक मदद मुहैया कराया जाये ताकि समाज हमारे द्वारा किये गए कार्यो को ध्यान में रखे और हमे हमारे मुहीम में और लोगो की सहायता प्राप्त हो सके।

धन्यवाद।

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आरक्षण क्या है?

आरक्षण क्या है?आरक्षण क्या है? पहले इसके बारे में जानना अति-आवश्यक है तभी हम इसकी मूल धारणा को जान पाएंगे। अलग अलग लोगो में अलग अलग मत है कोई कहता है होना चाहिए कोई कहता नहीं होना चाहिए। कोई कहता है यह संविधान की मूल अवधारणा के खिलाफ है। कोई कहता है जो बाबा साहेब लिख कर गए आरक्षण के बारे में उसके खिलाफ है।

 

सबसे मूल बात जो है आरक्षण उसके बारे में लोग बात तो करना चाहते है लेकिन क्या वे इसके व्यापक स्तर को बहस का मुद्दा बनाना चाहते है शायद नहीं, क्योंकि किसी से भी बहस कर ले उनके आरक्षण का मुख्य मुद्दा हमेशा जातिगत आरक्षण के साथ चिपकी हुई नज़र आती है। ऐसा क्यों है? ऐसा इसीलिए है क्योंकि वे आरक्षण की मूल अवधारणा जो बाबा साहेब ने संविधान में रखी थी उससे भली भाँति अवगत ही नहीं है और जब उसी का पालन आज तक नहीं हो पाया जिसकी वजह से आप और हम इस बहस को एक मुद्दे के तौर पर अपने मन मुताबिक उछालते रहते है। सबसे पहले आप आरक्षण के बारे में समझे इतना विरोध होने के वावजूद बाबा साहेब ने यह प्रावधान संविधान में रखा, ऐसा कैसे हो गया जहाँ संविधान को बनाने के करता धर्ता आज की तारीख में मनुवादी कहलाने वाले लोग थे फिर भी इस बात की सार्वभौमिकता कैसे स्थापित हो गयी की संविधान में आरक्षण का प्रावधान होना चाहिए। कुछ ना कुछ तो रही होगी सत्यता इन बातो में तभी इस शब्द का प्रयोग हुआ संविधान में। कोई इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता है, लेकिन आरक्षण होना चाहिए या नहीं यह एक अलग मुद्दा है लेकिन आमलोगो की राय हमेशा से जातिगत आरक्षण के आस पास सिमट कर रह जाती है।

 

1932 में जब गोलमेज सम्मलेन में इस बात पर सहमति बनी की आरक्षण होना चाहिए तो आखिर इसका आधार क्या होना चाहिए तो वहाँ पर यह तय हुआ की समाज में सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से लोग समाज के मुख्य धारा से वंचित रह गए है उनकी सूची तैयार की जाय और उस सूची के आधार पर समाज में इन लोगो के लिए कुछ प्रावधान रखा जाय ताकि इनको समाज की मुख्य धारा में शामिल किया जा सके और बाद में इसी को आधार बनाकर बाद में संविधान में प्रावधान रखा गया और इस सूची को संविधान में नाम दिया गया अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जनजाति बाद में इसी सूची में एक नया सूची शामिल किया गया जिसको नाम दिया गया अत्यंत पिछड़ा वर्ग। आरक्षण पेट भरने का साधन नहीं, इसका जो मूल अर्थ है वह है प्रतिनिधित्व। आरक्षण के द्वारा ऐसे समाज को प्रतिनिधित्व करने का मौका दिया गया जो शुरू से समाज के अंदर दबे कुचले रहे है। इस प्रतिनिधित्वता को नाम दिया गया राजनितिक आरक्षण जो शुरुआत में संविधान में शामिल किया गया था पहले 10 सालो के लिए था। लेकिन जो सामाजिक आरक्षण उसकी अवधारणा इसके विपरीत है उसकी मूल अवधारणा यह थी की जबतक समाज के उपेक्षित लोग समाज के बांकी लोगो के बराबर खड़े नहीं हो जाते है तबतक यह लागु रहेगा क्योंकि सामाजिक आरक्षण का मूल मंत्र यही था की समाज के हरेक वर्ग के लोगो की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर एक नहीं हो जाते है तब तक जारी रहेगी। और आज़ादी के 67 सालो बाद भी समाज का एक बड़ा तबका अपनी मुलभुत सुविधाओ के लिए तरस रहा है तो उसके सामाजिक न्याय की बात करना बेमानी होगी।

 

दिक्कत यह है की लोग एक सन्दर्भ को दूसरे सन्दर्भ के साथ को जोड़ कर देखते है। जबकि एक सन्दर्भ हमेशा दूसरे सन्दर्भ से अलग होता है। लोग सामाजिक आरक्षण को जातिगत आरक्षण का नाम  देकर एक दूसरे को दिग्भ्रमित करने की कोशिश करते है, जबकि जातिगत आरक्षण कोई शब्द ही नही है। तो सवाल उठता है की अगर यह जातिगत आरक्षण नहीं है तो क्या है? यह एक सामाजिक आरक्षण है ना की जातिगत आरक्षण। अब सवाल उठता है तो आखिर दोनों में अंतर क्या है। यह सच है की यह जाती आधारित आरक्षण है लेकिन संविधान क्या कहता है इसके बारे में और संविधान सामाजिक आरक्षण कहता है ना की जातिगत आरक्षण। संविधान के अनुसार सामाजिक आरक्षण का मतलब होता है समाज में सामाजिक एकरूपता, आर्थिक एकरूपता और शैक्षणिक एकरूपता ही इसका आधार है। यही मूलतः संविधान कहता भी है।

 

हम आरक्षण के समर्थक और विरोधी कब है, यह जानना अति आवश्यक है। 85% जनता जो अनुसूचित जनजाति/अनुसूचित जाती/अत्यंत पिछड़ा वर्ग में आता है उसके लिए 49.5% आरक्षण उपलब्ध है जिसमे से आज भी इन 49.5% में से कितने भर पाते है। और बांकी 50.5% आरक्षण किनके लिए है जो मात्र 15% जनसँख्या है। यह तो बात हुई उन आरक्षण के बारे में जो सरकारी नौकरियों में संविधान की प्रतिबद्धता के तहत उपलब्ध है। उन आरक्षण का क्या जिसके ऊपर किसी भी तरह की संवैधानिक मज़बूरी नहीं है जैसे समाज में पंडिताई, मंदिरो/मठों में पुजारियो का स्थान।

 

आरक्षण का विरोध तब कहाँ चली जाती है जब लोग कूड़ा उठाते है, इसका विरोध तब क्यों भूल जाते है जब झाड़ू लगाना होता है, आरक्षण का विरोध तब क्यों नहीं होता है जब शादी की बात आती है, आरक्षण का विरोध तब क्यों नहीं किया जाता है जब दलितों के नाम पर लोगो को मंदिरो में प्रवेश को प्रतिबंधित किया जाता है।

 

नोट: अगर किन्ही को इस लेख में कोई शिकायत है उनके सुझाव का स्वागत है।

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सामाजिक उत्थान कैसे हो सकता है

सामाजिक उत्थान कैसे हो

सामाजिक उत्थान कैसे हो

सामाजिक उत्थान कैसे हो – धानुक समाज के अंदर विश्वास की सख्त कमी है जिसकी वजह से हमेशा हम आपसी बिखराव की कगार पर होते है। हमारे अंदर जो आत्मविश्वास की कमी है वह प्राकृतिक है। क्योंकि ऐसी प्रवृती किसी दूसरे समाज में नहीं पायी जाती है। दुसरो की बातो को जल्दी ग्रहण करना भी बड़ी खामी है, दूसरे के बहकावे में जल्दी आ जाना, जिसका नतीजा हम आज तक भुगत रहे है। हमारी एकता ही हमारा उद्धार कर सकती है। जब तक हम लाखो की संख्या में एक नहीं होंगे हमारे समाज की भलाई नहीं हो सकती है। हमे आपस में सामंजस्य बनाना होगा, हमारी आपस की सहमति भी जरुरी है, हमारे समाज के लोगो का विश्वास भी जरुरी है। मेरी चिंता इस बात को लेकर भी है हम कितने असहनशील है, की हमे किसी एक व्यक्ति का सन्देश सही नहीं लगता है तो हम एक दूसरे पर दोषारोपण से भी बाज नहीं आते है।

हमारे कुछ सवाल है अपने समाज के कर्ता-धर्ता से जो निम्नलिखित है:

  • क्या हम ऐसे समाज को आगे ला पाएंगे?
  • क्या हमारे समाज की समझ एक तरह की हो पायेगी?
  • क्या हम कभी एक हो पाएंगे?
  • क्या हमारी मानसिकता एक होगी समाज को आगे लाने के लिए?

इस बात को हमारे समाज के लिए समझना पड़ेगा जिस समाज में 80-90% लोग आज भी गरीबी रेखा से नीचे आते है तो थोड़ा ध्यान रखा जाये। हमे सबको साथ लेकर चलना है लेकिन बहुतायत की बातो का समर्थन करते हुए आगे बढ़ना होगा। बिना पैसे के कोई सामाजिक कार्य नही हो सकता है मानते है लेकिन हमे यह भी समझना होगा की हमारे समाज में कुछ ऐसे लोग भी है जिनकी आर्थिक स्तिथि वैसी नहीं है। क्योंकि उनके मन में हीन भावना पैदा ना हो इसीलिए सबका सहयोग और साथ जरुरी है। जब जरुरत होगी तब जो भी मजबूत होंगे समाज से वही तो मदद करेंगे। जब तक हम साथ नहीं चलेंगे हमारी कमजोरी सबको झलकती रहेगी। समाज एक व्यक्ति के कहने से ना तो आगे बढ़ता है और ना ही उसका उद्धार संभव है। समाज सबको साथ रखने से बढ़ता है। पैसा तो एक सीढ़ी है लक्ष्य तक पहुँचने के लिए और समाज को थोड़ा समय दे और सबको योगदान देने का मौका दे तभी समाज का भला होगा। हर आदमी बड़ा ही होता है, हर आदमी का अपना अपना योगदान है समाज के लिए, लेकिन हम यहाँ अपने समाज के लोगो के लिए इकठ्ठा हुए है। उनका सम्मान करना सीखना होगा हमे। कहते है हम जैसा खाते है, जैसा पहनते है, जैसे समाज के साथ रहते है उसी की वाणी हम बोलते है, हम भी उसी समाज से आते है तो हमे उसके बारे में सोचना होगा।

 

आप लोगो के सहयोग से हम अपने इस लक्ष्य में कामयाब होंगे। आपलोगो से हाथ जोड़कर करबद्ध प्रार्थना है की हम और आप आपस में प्यार बढ़ाये और एक दूसरे के सुख दुःख में साथ दे। हमारा लक्ष्य आपस में समाज के अंदर प्यार और सहिष्णुता और एकता स्थापित करना है। आज जिस दौर से हम गुजर रहे है यह दौर काफी संवेदनशील और नाजुक है जहाँ से हम अपने समाज के युवाओ को यह समझाने का प्रयत्न करे की हमें इस समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर इस देश के विकाश में योगदान करना है। हमारा भी बराबर का हक़ बनता है और इस संविधान ने यह बराबर का हक़ दिया है जीने का और हमे संवैधानिक तौर पर आगे बढ़ना पड़ेगा। किसी भी संगठन की मजबूती और उसका असर तब व्यापक होता है जब आप संख्या बल के स्तर पर उसे ज़मीन तक लेकर जाए। हमे अपनी ज़मीन तैयार करनी है, हमे अपने निचले तबके के भाईओं को जागना है। हमारी बहुत सारी कमजोरियां है जिससे हमे रूबरू होना अतिआवश्यक है। जिसके बिना हम अपने समाज के उथ्थान के बारे में सोच भी नहीं सकते। 

जय धानुक, जय भारत।

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